क्या लाऊं बाबूजी ?
भजिया, बड़ा, समोसा-अभी निकला है
भजिया ले आओ
लाया बाबूजी
साब को एक पिलेट भजिआ
और बाबूजी
एक हांफ
साब को (स) पेसल हाफ
.............
.............
45 पइसे
क्या दिया बाबूजी ?
एक रुपया
.............
.............
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पान
मीठा बाबूजी
हं अ
14 पइसे
नइ, सिंगल मीठा लगाओ
अच्छा बाबूजी
सुर्ती बाबूजी
नइ
बीड़ी तमाखू बाबूजी
नइ, सिरिफ मसाला-चमनबहार
ये तो गर्भवती पान है बाबू बाबूजी
(धत् बीबी गर्भवती है उफ् !)
हं अ
14 पइसे
नइ, सिंगल मीठा लगाओ
अच्छा बाबूजी
सुर्ती बाबूजी
नइ
बीड़ी तमाखू बाबूजी
नइ, सिरिफ मसाला-चमनबहार
ये तो गर्भवती पान है बाबू बाबूजी
(धत् बीबी गर्भवती है उफ् !)
सिनेमा
घर में बैठे-बैठे क्या करोगे, क्या झख मारोगे
चलो आज सिनेमा चलें
क्या बताऊं यार बस कड़की है
क्या नाक में रोते हो यार
अबे चल न
ये देख ।
रद्दी फिलिम है यार
बाबूलाल चले
(दो कलियां)
अबे नइ
प्रभात चलें
(अनाड़ी)
ऊं..........अ....
राजकमल चलें
(डेथ इज क्विक)
नईं ई....ई......ई.....
अच्छा श्याम चलें
(तीसरी कमस)
यस्स,- फर्स्ट क्लास डेढ़ रुपैया
सेकंड ’’ एक रुप्पैया बीस पईसा
थर्ड ’’ बारा आना
अब से सिनेमा नई देखेंगे ।
चलो आज सिनेमा चलें
क्या बताऊं यार बस कड़की है
क्या नाक में रोते हो यार
अबे चल न
ये देख ।
रद्दी फिलिम है यार
बाबूलाल चले
(दो कलियां)
अबे नइ
प्रभात चलें
(अनाड़ी)
ऊं..........अ....
राजकमल चलें
(डेथ इज क्विक)
नईं ई....ई......ई.....
अच्छा श्याम चलें
(तीसरी कमस)
यस्स,- फर्स्ट क्लास डेढ़ रुपैया
सेकंड ’’ एक रुप्पैया बीस पईसा
थर्ड ’’ बारा आना
अब से सिनेमा नई देखेंगे ।
रोड
चूतियापा है
जनतन्त्र में भी बल्ब फ्यूज्ड हैं
हट गुरु, उधर नई देखना
हम तो इधर देखेगा, इध्धर सामने
साली चलती यूं-यूं है
नागन है नागन
और कमर, हायरे जालिम, मैं तो जाऊं कुरबान
तलवार है, तलवार-बस चिक्क से
हम तो बीच वाली को पसंद करता
(क्या बोला यार, तेरे मुंह में दूध-भात)
उफ !
भुर्र चीनाबादाम
पर यार जेब तो मखमल है
क्या बोला ये भी मखमल है !
जनतन्त्र में भी बल्ब फ्यूज्ड हैं
हट गुरु, उधर नई देखना
हम तो इधर देखेगा, इध्धर सामने
साली चलती यूं-यूं है
नागन है नागन
और कमर, हायरे जालिम, मैं तो जाऊं कुरबान
तलवार है, तलवार-बस चिक्क से
हम तो बीच वाली को पसंद करता
(क्या बोला यार, तेरे मुंह में दूध-भात)
उफ !
भुर्र चीनाबादाम
पर यार जेब तो मखमल है
क्या बोला ये भी मखमल है !
सट्टा
अबे 5 बाई 7 लगायेगा तो क्या बाबाजी का धरेगा
साला मानता इ नइ ।
जा, जा, चल फूट, ऐरे-गैरे-नत्थू खैरे
जब देखो 3 बाई 7, 6 बाई 1, 8 बाई 2
खांमों-खां चिकचिक करता
रस्ता नापने को बदा होगा तो नाप लेगा ।
क्या मैं अपने मन की कुछ भी नई कर सकता ?
(यहां ऐसा ही होता है)
4 बाई 3 लगायेगा आज, राशि का शुभांक जो है
नौकरी तो मिलती इ नइ
सब गउ खा लिये हैं
ग्रेजुएशन क्या किया झांड़ झोंका, भांड़
बेकारी
ऊपर से सुबारी1 फिर बच्चा
डिग्री को पोंगली भरेगा नइ तो क्या माथे में चटकायेगा
घूमेगा नइ तो क्या खुराना2 चन्द्रशेखर3 बनेगा
खाली बैठा कुछ तो करेगा या फिर भूख मरेगा
हम तो सट्टा लगायेगा, सट्टा 4 बाई 3
जा, जा बता दे-क्या बिगड़ता है
भीख तो नहीं मांगा- सट्टा ही खेला
क्या भूल गया मोरारजी की पांच साली योजना ?
हम तो पागल हो जायेगा
इस जन्तर-मन्तर (जनतंत्र) में ।
1 पत्नी 2 नोबल पुरस्कार विजेता जिसे भारत में नौकरी नहीं मिली 3 फर्स्ट क्लास इंजीनियरिंग ग्रेजुएट जिसे नौकरी नहीं मिली, कहीं हार्टफेल से मर गया
सुबह का भूला देश जो शाम को घर नहीं आता
‘राम-राम’ भजने की मुद्रा में आदमी
पर्दे पर हाजिर होता है-
एक बिना तल्ले का जूता
फोटो न खिंचवा सकने के एवज में
शहर में
उदास आदमियों के लिये उदास जूड़े हैं ।
अजायबघर हैं
जहां हूबहू आदमी की शक्ल की मूर्तियां है ।
मूर्तियां जो
जनतंत्र की सरकारी गवाह हैं ।
अखबार की सरकारी गवाह हैं ।
अखबार में छपा हुआ रहता है
देश का मौसम
मौसम का हाल
जो थूके हुए पीक की तरह है
और पीक दान देश !
व्यवस्था से ऊबकर हर रोज एक सूरज
संसद में फेंकता है
जूता
लेकिन जूते की रफ्तार गोली की तरह नहीं होती ।
बेचारा
सुबह का भूला देश
शाम को भी घर नहीं आता ।
जनतन्त्र
इनाम में मिला कब्रिस्तान है
जिसके चौखट पर श्रीमान देश का जड़ा सलाम है ।
शासन की गधेगाड़ी को हांकने की प्रतीक्षा में रत भीड़
जिसके पास आत्मसम्मान का साधन नहीं
उसका आत्महत्या के लिये करता है बाध्य ।
मौसम
अब खुलकर सामने आ गया है ।
मैं क्या पहिनूंगा
कपड़े सब कफन के काम आ चुके ।
कहां बैठूंगा ?
कुर्सियों पर तमाम मुर्दे बैठें हैं ।
मेरे पास
अब केवल एक देश बचा है
जौ बैलगाड़ी से गधागाड़ी हो गया है ।
मेरे हाथ का चाबुक हवा में चलकर
मुझे ही पीटता है ।
मैं निःवस्त्र, खाली हाथ लौटा
दिया गया हूं
उसी नेहरू के जनतन्त्र में
पर्दे पर हाजिर होता है-
एक बिना तल्ले का जूता
फोटो न खिंचवा सकने के एवज में
शहर में
उदास आदमियों के लिये उदास जूड़े हैं ।
अजायबघर हैं
जहां हूबहू आदमी की शक्ल की मूर्तियां है ।
मूर्तियां जो
जनतंत्र की सरकारी गवाह हैं ।
अखबार की सरकारी गवाह हैं ।
अखबार में छपा हुआ रहता है
देश का मौसम
मौसम का हाल
जो थूके हुए पीक की तरह है
और पीक दान देश !
व्यवस्था से ऊबकर हर रोज एक सूरज
संसद में फेंकता है
जूता
लेकिन जूते की रफ्तार गोली की तरह नहीं होती ।
बेचारा
सुबह का भूला देश
शाम को भी घर नहीं आता ।
जनतन्त्र
इनाम में मिला कब्रिस्तान है
जिसके चौखट पर श्रीमान देश का जड़ा सलाम है ।
शासन की गधेगाड़ी को हांकने की प्रतीक्षा में रत भीड़
जिसके पास आत्मसम्मान का साधन नहीं
उसका आत्महत्या के लिये करता है बाध्य ।
मौसम
अब खुलकर सामने आ गया है ।
मैं क्या पहिनूंगा
कपड़े सब कफन के काम आ चुके ।
कहां बैठूंगा ?
कुर्सियों पर तमाम मुर्दे बैठें हैं ।
मेरे पास
अब केवल एक देश बचा है
जौ बैलगाड़ी से गधागाड़ी हो गया है ।
मेरे हाथ का चाबुक हवा में चलकर
मुझे ही पीटता है ।
मैं निःवस्त्र, खाली हाथ लौटा
दिया गया हूं
उसी नेहरू के जनतन्त्र में
जनतन्त्र के चिलम में
सभी लोग अपनी-अपनी आंखों में घड़ियां बांधे
मूहूर्त का इंतजार कर रहे थे-
प्रसव-पीड़ा से कराहती पत्नी
सिंधियों की कपड़ा कूटने की लकड़ियां
सड़क पर रिक्शे-टांगे की चकतियां
गली में सटोरियों के रिकार्ड
और मिल के भोंपू सभी बोल रहे थे ।
अपनी-अपनी मातृभाषा
पर एक मैं था
जिधर से कुछ नहीं हुआ
केवल मेरे भीतर के पके अंधेरे को फोड़ते हए
मुर्गे ने बांग दी
सोलह आने सच लड़की हुई ।
पहाड़ीनूमा अंधियारे के बीच
गन्जी, डेचकी और कोपरी की
फड़फड़ाती चीख से भी
मेरे भीतर का सन्नाटा नहीं टूटा
मूझे लगने लगा कि मेरे हाथों में हथकड़ियां
डाल दी गयी हैं
पर इधर जब नींद टूटी तो
सूरज छत्ते के समान था और
मैं कटघरे में था । मैंने सिर हिला दिया
जूरियों के एक झण्ड ने कह दिया –
‘फांसी के फंदे पर लटका दो इसे’
उस वक्त मेरे हाथों में जंजीरें थी
पिस्तौल नहीं ।
जनतंत्र के चिलम में ठूंसी गई जिन्दगी के खिलाफ
जब-जब मैंने मतदान करना चाहा
हाथ मेरे फड़फड़ाने लगे
और मैंने हाथों में मतदान-पत्र की जगह एक दस का नोट पाया ।
ऐसे ही अनेक अवसरों, ऋतुओं, जलसों व मुहूर्तों में
कुचल दी गई
मेरी अच्छी मां मातृभाषा ।
0
न्यूटन के गरूत्वाकर्षण के बावजूद
जिन्दगी के ठेले को धकेलते हुए
एक प्रौढ़ा दुःख
मुझे जंजीरों में बांध लेती है।
शब्दों के जंगल से
प्रार्थना के फूल नहीं मिलते मुझे
और चीखों के फूल से
संतुष्टि की महक।
केवल शहर की छाती पर खड़ा जयस्तम्भ
पर लाल तिकोन का
विज्ञापन खींचता है।
इस वक्त एक होंठ काटती हुयी
खूबसूरत लड़की
इन्टरवेल में दिखायें गये
स्वाइड-सी लगती है।
चाहे वह लोहे का धंधा हो
या फार्म का
यह केवल एक नाटक है
जिसके नायक मैं या तुम नहीं
हमसे भिन्न कोई और है
भाई, हमारे पेट बहुत गहरे हैं।
अचूक निशाने पर
अचूक निशाने पर गोली दागने के पहले
रह-रह कर दूध पीती विटिया
ख्याल आती है
और मैं फिर धंस जाता हूं
उसी व्यवस्था में
(जहां से निकलकर भागने की
(ना-)कामयाब कोशिश की थी मैंने)
सुबह-सुबह
आज मेहत्तर नाई ने
एक अच्छी बात कही-
दाढ़ी वनवाने के दौरान
अक्सर क्यों हम
मूछें भी साफ करवा लेते हैं ?
मैंने समझा कि वह
राजनीति पर बोल रहा है
पर उसने कहा कि
वह तो मर्दानगी पर बोल रहा है।
मैं क्या कहता
मुझे आने लगी शर्म
कि मर्दानगी क्यों नहीं है
मेरे पास ?
और मर्दानगी क्यों नहीं है
अपने राम देश के पास।
अगर यह बात नहीं
तो आखिर कौन-सी चीज है वह
जो अक्सर हमें रोकती है
कुछ करने को।
आखिर क्यों हम खाली बोतल में
डॉट की तरह हैं ?
रह-रह कर दूध पीती विटिया
ख्याल आती है
और मैं फिर धंस जाता हूं
उसी व्यवस्था में
(जहां से निकलकर भागने की
(ना-)कामयाब कोशिश की थी मैंने)
सुबह-सुबह
आज मेहत्तर नाई ने
एक अच्छी बात कही-
दाढ़ी वनवाने के दौरान
अक्सर क्यों हम
मूछें भी साफ करवा लेते हैं ?
मैंने समझा कि वह
राजनीति पर बोल रहा है
पर उसने कहा कि
वह तो मर्दानगी पर बोल रहा है।
मैं क्या कहता
मुझे आने लगी शर्म
कि मर्दानगी क्यों नहीं है
मेरे पास ?
और मर्दानगी क्यों नहीं है
अपने राम देश के पास।
अगर यह बात नहीं
तो आखिर कौन-सी चीज है वह
जो अक्सर हमें रोकती है
कुछ करने को।
आखिर क्यों हम खाली बोतल में
डॉट की तरह हैं ?
चार स्थितियों से गुजरता : मैं
मैंने अपने चेहरे पर
सीमेंट के पसस्तर लगा लिये हैं
ताकि झेल सकूं लोहे के थप्पड़।
000
मैंने अपनी आंखों में
पत्थर के चश्मे लगा लिये हैं
ताकि न देख सकूं पथरीली रोशनी
जो गड़रिये के घर से शुरू होकर
(शाम) सेठ के घर मुंह धोती है।
000
मैंने अपे कानों में
फिट कर लिया है-डॉट
ताकि न सुन सकूं
सर्दीला मर्सिया गीत,
जो बिस्तर से शुरू होकर
बूढ़े कब्रिस्तान तक गूंजती है।
000
मैंने अपने मुंह में ‘ब्लेक प्लेट’
ठोंक रखा है-
ताकि न गा सकूं रंभाते बछड़े के गीत
जो कोठार से शुरू होकर
ड्राइंगरूम तक पहुंचती है।
शीर्षकहीन
कानों में भोजली खोंसकर
अब मैं तुमसे कौन सा नाटक खेलूं ?
सरासर झूठ बोलने से कोई फायदा नहीं होगा
इस जनतंत्र में अब कोई भी भविष्यवाणी
हस्तरेखाओं से मेल नहीं खाती
एक सीढ़ी,जो कुतुबमीनार की तरह है
योजनाओं की
खड़े होकर इन आंखों से देखा जा सकता है तमाम दृश्य
(जो खुल्मखुल्ला है)
घर से जो भिलाई बहुत नजदीक है-मेरे,
पेट के लिये दरवाजा नहीं खोल सकती
भाखरा यदि न भी भसके तो क्या
राशन बन सकेगा ?
सनसनाता हुआ एक गुच्छा अंधेरे का
मेरे सामने फेंक दिया है
जिस तरह
चिड़ियों के सामने फेंक दिया गया है
एक झोला
जिस पर महावीर छाप अगरबत्ती का विज्ञापन
और एक हद तक
जो राष्ट्रीय-ध्वज के तुल्य है
सब जगह है
एक सांप
जिसने आदमी का चेहरा पहन रक्खा था
मेर सामने मुस्कराता रहा
उसके लिए समझौते की उम्मीद करता
दुःख इस बात का
उस वक्त मेरे हाथों में पिस्तौल नहीं । केवल
राशन कार्ड था,
अभी-अभी ही एक चितकवरी गाय
मेर दरवाजे पर आयी है
बोलो, मैं उससे क्या कहूं ?
उड़नछू
मैंने घुसते ही जाना
कि वह है गेटवे ऑफ इण्डिया।
मैं उत्साहित होने ही वाला था
कि कर दिया गया
कबूतरों की उड़ान से
चौकन्ना।
कि वह है गेटवे ऑफ इण्डिया।
मैं उत्साहित होने ही वाला था
कि कर दिया गया
कबूतरों की उड़ान से
चौकन्ना।
त्रिमूर्ति
एलीफेण्टा गुफाओं की त्रिमूर्ति से
मिलाता रहा
अपना चेहरा
कहीं कुछ फर्क नहीं दिखा।
मैंने सेल्यूट की तरह ही
दाग दी हँसी।
मेरी हँसी बाजू खड़े जोड़े ने
चुरा ली,
मैं मूर्ति हो गया।
मिलाता रहा
अपना चेहरा
कहीं कुछ फर्क नहीं दिखा।
मैंने सेल्यूट की तरह ही
दाग दी हँसी।
मेरी हँसी बाजू खड़े जोड़े ने
चुरा ली,
मैं मूर्ति हो गया।
दूध गंध
नदियाँ अपने बिस्तरों पर पड़ी रहीं
मैंने जगाया नहीं उन्हें।
उन की आँखों में
मैंने नहीं देखा
दूध-घी
केवल खोलता हुआ लहू था
दूध गंध
फिर किधर से आई ?
मैंने जगाया नहीं उन्हें।
उन की आँखों में
मैंने नहीं देखा
दूध-घी
केवल खोलता हुआ लहू था
दूध गंध
फिर किधर से आई ?
चुनाव
मैंने हारकर
चुन लिया है एक सूखा वृक्ष
जिसकी जड़ें गई है धरती के छोरों तक
निकलेंगे ही एक दिन हरे पत्ते।
चुन लिया है एक सूखा वृक्ष
जिसकी जड़ें गई है धरती के छोरों तक
निकलेंगे ही एक दिन हरे पत्ते।
चिड़िया - दो कविताएँ
चिड़िया -1
हवाएँ दूर वन से
नहीं आ रही हैं
न तो कोई भूकम्प हुआ है, भारी
इधर केवल
एक चिड़िया
डगाल से उड़ी है।
........
चिड़िया-2
चिड़िया
डगाल पर
एक अर्से से चुप बैठी है।
न आजू हवा है
न बाजू पानी
उसके पास एक मँजी-मँजाई
भाषा है।
चहचहाना अब उसका जुर्म
हो गया है
उसकी चहचहाहट
अब लोगों ने चुरा ली
तो वे उसमें
अब एक नयी भाषा की तलाश
कर रहे हैं।
मैंने परसों
एक चिड़िया देखी
जो घोंसले से निकलकर
पैदल चली आ रही थी
और लोग सब
अपने-अपने घोंसलों में
चिड़िया हो गए थे
मैं चिड़ियों का झुण्ड नहीं हो सका।
सोचता रहा
डगाल पर
चिड़िया चुप क्यों बैठी है ?
आजू हवा क्यों नहीं है ?
बाजू पानी क्यों नहीं है ?
हवाएँ दूर वन से
नहीं आ रही हैं
न तो कोई भूकम्प हुआ है, भारी
इधर केवल
एक चिड़िया
डगाल से उड़ी है।
........
चिड़िया-2
चिड़िया
डगाल पर
एक अर्से से चुप बैठी है।
न आजू हवा है
न बाजू पानी
उसके पास एक मँजी-मँजाई
भाषा है।
चहचहाना अब उसका जुर्म
हो गया है
उसकी चहचहाहट
अब लोगों ने चुरा ली
तो वे उसमें
अब एक नयी भाषा की तलाश
कर रहे हैं।
मैंने परसों
एक चिड़िया देखी
जो घोंसले से निकलकर
पैदल चली आ रही थी
और लोग सब
अपने-अपने घोंसलों में
चिड़िया हो गए थे
मैं चिड़ियों का झुण्ड नहीं हो सका।
सोचता रहा
डगाल पर
चिड़िया चुप क्यों बैठी है ?
आजू हवा क्यों नहीं है ?
बाजू पानी क्यों नहीं है ?
पेड़
एक पेड़ है
हवा है
बारिश के पहले-
जो घोंसले हैं
हिल रहे हैं।
हिलता हुआ दिन है
हिलती हुई रात है।
उजाले कम्पास में भरकर दौड़ते हुए
अँधेरे से हाथ रँगे हैं
खामोशी की तरह ही
टूटे हैं कमीज़ के बटन।
जैसे, पूरा समय घड़ी से कूदकर
डगाल पर अटक गया हो
और डगाल कंगाल हो।
सब कुछ दिखता रहा
जैसे पहाड़ की तरह चिड़ियाँ
गिनती की तरह भविष्य।
हम अपनी उँगलियां गिनते हुए
पेड़ के नीचे खड़े रहे।
हवा है
बारिश के पहले-
जो घोंसले हैं
हिल रहे हैं।
हिलता हुआ दिन है
हिलती हुई रात है।
उजाले कम्पास में भरकर दौड़ते हुए
अँधेरे से हाथ रँगे हैं
खामोशी की तरह ही
टूटे हैं कमीज़ के बटन।
जैसे, पूरा समय घड़ी से कूदकर
डगाल पर अटक गया हो
और डगाल कंगाल हो।
सब कुछ दिखता रहा
जैसे पहाड़ की तरह चिड़ियाँ
गिनती की तरह भविष्य।
हम अपनी उँगलियां गिनते हुए
पेड़ के नीचे खड़े रहे।
गहराई
सन्नाटे में गुँथा हुआ है
एक कुआँ मन
कोई एक पत्थर शोर का मारता है
बुलबुले की जगह
बाहर आता है वही परिचित चेहरा।
किनारे होंठो से बँधी हुई
एक सूखी झील है।
सन्नाटे में सना हुआ है चेहरा
पहचान के लिए लोग अपने साथ
चेहरा भर उत्साह लाये हैं।
कहीं कुछ कहने के पहले
अपने-अपने कुएँ की गहराई नापें।
गुलदस्ता
उतरा हुआ चेहरा नहीं चाहिये
उसे सन्दूक में रख सकते हैं
चेहरा संदूक है
(सन्दूकइन होने से बचें)
क्या मुश्किल है कि
सभी के पास चेहरे हैं
चेहरे में चारों धाम हैं
आँख
कान
नाक
मुँह
मेरे घर से
अजायबघर बहुत नकदीक है
जबकि अपना चेहरा
मैंने बहुत सम्हाल कर रखा है।
क्या वह सोना है
किले का फाटक बड़ा है
मेरे चेहरे का फाटक
किले के फाटक का समानुपाती नहीं है।
एक बड़ा बाग है
बाग में फूल हैं
चिड़ियों की चहचहाहट है
क्या बाग में फूलों का गुलदस्ता / या
चिड़ियों की चहचहाहट का खजाना
बनाया जा सकता है
लो! मैंने अपना चेहरा
गुलदस्ता या खजाना होने से
बचा लिया है
इस काम में
मुझे किसी की सहायता (लेने) की
जरूरत नहीं पड़ी।
उसे सन्दूक में रख सकते हैं
चेहरा संदूक है
(सन्दूकइन होने से बचें)
क्या मुश्किल है कि
सभी के पास चेहरे हैं
चेहरे में चारों धाम हैं
आँख
कान
नाक
मुँह
मेरे घर से
अजायबघर बहुत नकदीक है
जबकि अपना चेहरा
मैंने बहुत सम्हाल कर रखा है।
क्या वह सोना है
किले का फाटक बड़ा है
मेरे चेहरे का फाटक
किले के फाटक का समानुपाती नहीं है।
एक बड़ा बाग है
बाग में फूल हैं
चिड़ियों की चहचहाहट है
क्या बाग में फूलों का गुलदस्ता / या
चिड़ियों की चहचहाहट का खजाना
बनाया जा सकता है
लो! मैंने अपना चेहरा
गुलदस्ता या खजाना होने से
बचा लिया है
इस काम में
मुझे किसी की सहायता (लेने) की
जरूरत नहीं पड़ी।
भूकम्प-बोध
मेरी नींद
हवाई जहाज की दूसरी उड़ान से खुल गई़
जैसे खुल जाते हैं
आँखें के कपाट
दृश्यों की आवाज से।
गड़गड़ाता हुआ दृश्य
घिर्री भीतर खींचता है
मैं पानी खींचकर
आँखें धो लेना चाहता हूँ
पर कुआँ नहीं है
न पानी नल में-
नींद की गर्दन मरोड़कर
आँखों में रख दी है।
आँखों में पूरा घर
बाढ़ में तैरता हुआ
लकड़ी के गट्ठे-सा लगा
जिसमें से रह-रह कर
कभी मेरी पत्नी तो कभी बच्चे
झाँकते रहे पलक बनकर।
अपनी पलकों और पैरों को सम्हालते हुए
जैसे पलकों में घर और
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पेरियार होस्टल के
तीसरी मंजिल के किसी कमरे में
इन्तजार कर रहा हूँ
सोंधी सुबह की
कि अचानक धऱती का फैन बेल्ट टूटा !
या पाताल-लोक का पानी हिला !
या धरती हँसी !
यो रोयी !
या सुस्तायी !
(जैसे वह काम कर रही हो)
खुले केश वाली वह लम्बी काली लड़की
लड़कों की टोली में,
सिगरेट पीती हुई मैदान पर थी-लगातार
भूकम्प और सरकार पर
बत्तीसी निकालती हुई।
लड़कों को इस वक्त सोए रहना था
मेरे पीछे वाले लड़के ने टोका
इस 9-के सुबह सिरीज में
यह पहला मौका नहीं हैं, जबकि
लड़के जाग रहे हैं
लड़कियाँ जाग रही हैं।
केवल तीसरी मंजिल से
गड़बड़ी देखते हुए
मैं उसे ग्राफ से अंकित कर रहा हूँ
मुझे ग्राफ में
मेरा अपना घर धँसा हुआ दिखता है-
घँसे हुए घर के दरवाजे पर
बना स्वस्तिक अब त्रिशूल हो गया है
जबकि पूरी जमीन हिल-डुल गई है
सोती हुई लड़की की तरह ।
(जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय पेरियार होस्टल की तीसरी मंजिल पर भूकम्प बोध)
हवाई जहाज की दूसरी उड़ान से खुल गई़
जैसे खुल जाते हैं
आँखें के कपाट
दृश्यों की आवाज से।
गड़गड़ाता हुआ दृश्य
घिर्री भीतर खींचता है
मैं पानी खींचकर
आँखें धो लेना चाहता हूँ
पर कुआँ नहीं है
न पानी नल में-
नींद की गर्दन मरोड़कर
आँखों में रख दी है।
आँखों में पूरा घर
बाढ़ में तैरता हुआ
लकड़ी के गट्ठे-सा लगा
जिसमें से रह-रह कर
कभी मेरी पत्नी तो कभी बच्चे
झाँकते रहे पलक बनकर।
अपनी पलकों और पैरों को सम्हालते हुए
जैसे पलकों में घर और
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पेरियार होस्टल के
तीसरी मंजिल के किसी कमरे में
इन्तजार कर रहा हूँ
सोंधी सुबह की
कि अचानक धऱती का फैन बेल्ट टूटा !
या पाताल-लोक का पानी हिला !
या धरती हँसी !
यो रोयी !
या सुस्तायी !
(जैसे वह काम कर रही हो)
खुले केश वाली वह लम्बी काली लड़की
लड़कों की टोली में,
सिगरेट पीती हुई मैदान पर थी-लगातार
भूकम्प और सरकार पर
बत्तीसी निकालती हुई।
लड़कों को इस वक्त सोए रहना था
मेरे पीछे वाले लड़के ने टोका
इस 9-के सुबह सिरीज में
यह पहला मौका नहीं हैं, जबकि
लड़के जाग रहे हैं
लड़कियाँ जाग रही हैं।
केवल तीसरी मंजिल से
गड़बड़ी देखते हुए
मैं उसे ग्राफ से अंकित कर रहा हूँ
मुझे ग्राफ में
मेरा अपना घर धँसा हुआ दिखता है-
घँसे हुए घर के दरवाजे पर
बना स्वस्तिक अब त्रिशूल हो गया है
जबकि पूरी जमीन हिल-डुल गई है
सोती हुई लड़की की तरह ।
(जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय पेरियार होस्टल की तीसरी मंजिल पर भूकम्प बोध)
माइक्रोफोन
ये जो माइक्रोफोन है न
गूँगा है।
ये मुझसे
मेरी आवाज
उधार माँगता है।
माइक्रोफोन,
क्या ऐसा नहीं हो सकता
कि आज सिर्फ तू ही बोले
और मैं चुप रहूँ ?
गूँगा है।
ये मुझसे
मेरी आवाज
उधार माँगता है।
माइक्रोफोन,
क्या ऐसा नहीं हो सकता
कि आज सिर्फ तू ही बोले
और मैं चुप रहूँ ?
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