जनतन्त्र के चिलम में


सभी लोग अपनी-अपनी आंखों में घड़ियां बांधे
मूहूर्त का इंतजार कर रहे थे-
प्रसव-पीड़ा से कराहती पत्नी
सिंधियों की कपड़ा कूटने की लकड़ियां
सड़क पर रिक्शे-टांगे की चकतियां
गली में सटोरियों के रिकार्ड
और मिल के भोंपू सभी बोल रहे थे ।
अपनी-अपनी मातृभाषा
पर एक मैं था
जिधर से कुछ नहीं हुआ
केवल मेरे भीतर के पके अंधेरे को फोड़ते हए
मुर्गे ने बांग दी
सोलह आने सच लड़की हुई ।
पहाड़ीनूमा अंधियारे के बीच
गन्जी, डेचकी और कोपरी की
फड़फड़ाती चीख से भी
मेरे भीतर का सन्नाटा नहीं टूटा
मूझे लगने लगा कि मेरे हाथों में हथकड़ियां
डाल दी गयी हैं
पर इधर जब नींद टूटी तो
सूरज छत्ते के समान था और
मैं कटघरे में था । मैंने सिर हिला दिया
जूरियों के एक झण्ड ने कह दिया –
‘फांसी के फंदे पर लटका दो इसे’
उस वक्त मेरे हाथों में जंजीरें थी
पिस्तौल नहीं ।
जनतंत्र के चिलम में ठूंसी गई जिन्दगी के खिलाफ
जब-जब मैंने मतदान करना चाहा
हाथ मेरे फड़फड़ाने लगे
और मैंने हाथों में मतदान-पत्र की जगह एक दस का नोट पाया ।
ऐसे ही अनेक अवसरों, ऋतुओं, जलसों व मुहूर्तों में
कुचल दी गई
मेरी अच्छी मां मातृभाषा ।

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न्यूटन के गरूत्वाकर्षण के बावजूद
जिन्दगी के ठेले को धकेलते हुए
एक प्रौढ़ा दुःख
मुझे जंजीरों में बांध लेती है।
शब्दों के जंगल से
प्रार्थना के फूल नहीं मिलते मुझे
और चीखों के फूल से
संतुष्टि की महक।
केवल शहर की छाती पर खड़ा जयस्तम्भ
पर लाल तिकोन का
विज्ञापन खींचता है।
इस वक्त एक होंठ काटती हुयी
खूबसूरत लड़की
इन्टरवेल में दिखायें गये
स्वाइड-सी लगती है।
चाहे वह लोहे का धंधा हो
या फार्म का
यह केवल एक नाटक है
जिसके नायक मैं या तुम नहीं
हमसे भिन्न कोई और है
भाई, हमारे पेट बहुत गहरे हैं।

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