शीर्षकहीन


औरतों को देखकर कुछ भी नहीं कहा जा सकता
कि वे भोली हैं, उदार या क्रूर
औरतें औरतें ही हैं
इस पृथ्वी पर ललकती हुई।

एक समय में एक औरत पूरी जलवायु होती है
सम्पूर्ण शरीर के साथ।

औरत जैसे आग में तपा हुआ एक गोला
सूरज तो कहीं नहीं ठहरता
पानी भरते नक्षत्र और तारे
जैसे दमकल ले आग बुझाने चले हों।

लगातार नक्शे से गाँव टूटते चले जा रहे हैं
फिर, फिर नींव रखती जा रही है औरत
बेहद चौकन्नी हुई औरत
एक बार फिर सँभलती है, सँवरती है
अपने को आइने में देखती है
हर सुबह
और सोचती है कि
कल फिर वह औरत ही होगी।

यहाँ ही नहीं है औरतें
औरतें त्रिभुवन में भी हैं
शंख बजाती हुई औरतें
पौधों में पानी डालती हुई औरतें
गोबर बीनती हुई औरतें
गोली दागती हुई औरतें
खाना परोसती हुई औरतें
हँसती-इठलाती हुई औरतें
दुःख-दर्द बाँटती हुई औरतें
इमली खाती हुई औरतें।

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