भूकम्प-बोध

मेरी नींद
हवाई जहाज की दूसरी उड़ान से खुल गई़
जैसे खुल जाते हैं
आँखें के कपाट
दृश्यों की आवाज से।

गड़गड़ाता हुआ दृश्य
घिर्री भीतर खींचता है
मैं पानी खींचकर
आँखें धो लेना चाहता हूँ
पर कुआँ नहीं है
न पानी नल में-
नींद की गर्दन मरोड़कर
आँखों में रख दी है।

आँखों में पूरा घर
बाढ़ में तैरता हुआ
लकड़ी के गट्ठे-सा लगा
जिसमें से रह-रह कर
कभी मेरी पत्नी तो कभी बच्चे
झाँकते रहे पलक बनकर।

अपनी पलकों और पैरों को सम्हालते हुए
जैसे पलकों में घर और
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पेरियार होस्टल के
तीसरी मंजिल के किसी कमरे में
इन्तजार कर रहा हूँ
सोंधी सुबह की
कि अचानक धऱती का फैन बेल्ट टूटा !
या पाताल-लोक का पानी हिला !
या धरती हँसी !
यो रोयी !
या सुस्तायी !
(जैसे वह काम कर रही हो)
खुले केश वाली वह लम्बी काली लड़की
लड़कों की टोली में,
सिगरेट पीती हुई मैदान पर थी-लगातार
भूकम्प और सरकार पर
बत्तीसी निकालती हुई।

लड़कों को इस वक्त सोए रहना था
मेरे पीछे वाले लड़के ने टोका
इस 9-के सुबह सिरीज में
यह पहला मौका नहीं हैं, जबकि
लड़के जाग रहे हैं
लड़कियाँ जाग रही हैं।

केवल तीसरी मंजिल से
गड़बड़ी देखते हुए
मैं उसे ग्राफ से अंकित कर रहा हूँ
मुझे ग्राफ में
मेरा अपना घर धँसा हुआ दिखता है-
घँसे हुए घर के दरवाजे पर
बना स्वस्तिक अब त्रिशूल हो गया है
जबकि पूरी जमीन हिल-डुल गई है
सोती हुई लड़की की तरह ।


(जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय पेरियार होस्टल की तीसरी मंजिल पर भूकम्प बोध)

कोई टिप्पणी नहीं: