वक्तव्य


मेरे हमउम्र लोग आज जो कुछ भी लिख रहे हैं उसे अनुशासनहीन, अमानवीय, ढीठ और आक्रोशी लेखन कहा जाने लगा है। मैं नहीं जानता कि ऐसा कहने वाले “अनुशासनहीनता” से क्या समझते हैं ? माना कि आज का लेखन अनुशासनहीन है, आक्रोशी है-तो क्या बुरा है ? क्या यह युवापन की निशानी नहीं है ? हमें आस्था है इस लेखन पर और इस आस्था और संषर्ष की बदौलत हम आज के ठहराव को तोड़ सकते है।

कवितायें जो आज-कल लिखी जा रही हैं वे मुझे रूढ़ नजर आती हैं-खासकर भाषा के लिहाज से। मुझे भाषा को तलाश की आवश्यकता महसूस नहीं होती क्योंकि मेरे पास है वह । मैं तलाशना तभी उचित समझता हूँ जब कोई चीज गुम जाये पर, जहाँ तक मैं समझता हूँ अभी वह ऐसी स्थिति में नहीं है।

तो मैं कह चुका हूँ कि भाषा को तलाशने की आवश्यकता महसूस नहीं होती । बल्कि वह मुझे तलाशती है। मेरे आसपास एक ऐसी भाषा चूमती है या यूं कहूं कि वह 24-सों घंटे घूमती है जिससे यदि मैं लाख चाहकर भी भागने की कोशिश करूँ तो नहीं भाग सकता। इसे मैं रोजमर्रा की भाषा कहना चाहूँगा (पर सच तो यहा है कि “रोजमर्रा” शब्द मुझे संतोष नहीं दे रहा-) मैंने इसी भाषा के बीच अपना बचपन देखा है ओर युवापन भी देख रहा हूँ और अपना अन्तिमपन भी इसी भाषा के बीच ही देखूँगा। यह चालू भाषा (‘रोजमर्रा’ शब्द को हटाकर अब ‘चालू भाषा’ कह रहा हूँ) मेरे साथ इस कदर चिपकी हुई है जैसे कि शरीर में जोंक । मुलाहजा फरमाइये कि आप अपने दैनिक जीवन में किस भाषा का उपयोग करते हैं, क्या उस भाषा का जिसका उपयोग अपनी कविताओं में कहते हैं ? नहीं, बिलकुल नहीं ! तब फिर ईमानदारी कहाँ है जिसकी हम रट लगाये बैठे हैं ?

मैं उसी भाषा का प्रयोग कविताओं में करना चाहूँगा जिसे हम-सब बोलते हैं। बोलते ही नहीं बल्कि उस भाषा के बीच जीते भी हैं। रोजमर्रें की उस चालू भाषा में परिचित मुहावरे हैं जो आमने-सामने होकर बात करते नजर आते हैं।

आज जब मन्दिर की घंटियाँ नहीं बज रहीं, मुर्गा भी बाँग नहीं दे रहा, केवल आवाजें और टेलीफून की आवाजें, पान दूकान में सटोरियों के रेकार्ड, सुबह-सुबह दूधवाली की झल्लाहट बीवी की रूखी जवान, मालिक और नौकर की रूआबी-सलामी की आवाजें, कप-वशी की खनखनाहटों के बीच दोस्तों के वार्तालाप छोकरे-छोकरियों के प्रेमालाप, नेताओं के अस्पताली आश्वासन, संसद के धुम-धड़ाक, खांव-चबाव...........और मिलों के नरियाते भोंपू की आवाजों के बीच मैं आज “चालू भाषा की कविता” लिख रहा हूँ।

मेरी ये बातें आपने सुनी। खैर अब आगे मुलाहजा फरमायें। मैं ‘बुद्धि’ नामक पक्षी को ‘ब्रेक’ के रूप में ही सदैव इस्तेमाल करता हूँ। जहाँ तक शब्दों के अर्थों का सवाल है, उसे मैं एक कदम आगे चढ़कर देखने की कोशिश करता हूँ। अनुभूति को समझदारी से ग्रहण करना ही मुझे भाता है। पता नहीं मैं इसमें कहाँ तक सफल हो पाया हूँ। मैं मानसिक तनानव के बीच ही कविता लिख पाता हूँ। लगता है कोई ऐसी चीज है जो हमें कविता लिखवाती है। शायद वह भावुकता हो। यदि आप कहेंगे भावुकता नहीं तो उसका सम्बन्ध कहीं न नहीं भावुकता से है ही। ‘भोगने ’ के बारे में मेरा कुछ अलग मत है। मात्र को भोग लेना ही पर्याप्त नहीं है । बल्कि भोगने के पहिले ‘हम क्यों भोगें, और क्या हम ईमानदारी और समझदारी से भोग रहे हैं’ प्रश्न मेरे सामने उठता है ।

जिंदगी के उन तमाम परिस्थितियों से जूझ रहा हूँ, इसी आस्था से कि कल एक नई सुबह होगी ।

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