शीर्षकहीन


कानों में भोजली खोंसकर
अब मैं तुमसे कौन सा नाटक खेलूं ?
सरासर झूठ बोलने से कोई फायदा नहीं होगा
इस जनतंत्र में अब कोई भी भविष्यवाणी
हस्तरेखाओं से मेल नहीं खाती
एक सीढ़ी,जो कुतुबमीनार की तरह है
योजनाओं की
खड़े होकर इन आंखों से देखा जा सकता है तमाम दृश्य
(जो खुल्मखुल्ला है)
घर से जो भिलाई बहुत नजदीक है-मेरे,
पेट के लिये दरवाजा नहीं खोल सकती
भाखरा यदि न भी भसके तो क्या
राशन बन सकेगा ?
सनसनाता हुआ एक गुच्छा अंधेरे का
मेरे सामने फेंक दिया है
जिस तरह
चिड़ियों के सामने फेंक दिया गया है
एक झोला
जिस पर महावीर छाप अगरबत्ती का विज्ञापन
और एक हद तक
जो राष्ट्रीय-ध्वज के तुल्य है
सब जगह है
एक सांप
जिसने आदमी का चेहरा पहन रक्खा था
मेर सामने मुस्कराता रहा
उसके लिए समझौते की उम्मीद करता
दुःख इस बात का
उस वक्त मेरे हाथों में पिस्तौल नहीं । केवल
राशन कार्ड था,
अभी-अभी ही एक चितकवरी गाय
मेर दरवाजे पर आयी है
बोलो, मैं उससे क्या कहूं ?

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