परिचय


0 भगतसिंह सोनी 0


0 जन्म-
रायपुर, छत्तीसगढ़, 25 सितम्बर, 1947

0 शिक्षा-
बीएस.सी, एम.ए


0 व्यवसाय-
पहले पहल मास्टरी पश्चात बैंक में अफ़सरी-मैनेज़री

0 लेखन-
-कविता लेखन की शुरूआत सन् 1968 से । हिंदी एवं छत्तीसगढ़ में समानांतर लेखन

0 कविता-पुस्तकें


- नये स्वरः3, (छत्तीसगढ़ी का तारसप्तक), प्रथम संकलित कवि, प्रकाशन वर्ष-1969


- रहँचुली(छत्तीसगढ़ी की लंबी कविता) प्रकाशन वर्ष-1974


- नहीं बनना चाहता था कवि, प्रकाशन वर्ष-1974


- राजा कुँआ, भारतीय ज्ञान विज्ञान समिति, दिल्ली द्वारा जन वाचन आंदोलन, राष्ट्रीय साक्षरता मिशन के तहत प्रकाशित ।


0 कविताओं का प्रकाशन-
देश की साहित्यिक पत्रिकाओं यथा-संज्ञा, राष्ट्रबंधु, कृति परिचय, बिंदु, कल्पना, साक्षात्कार, इसलिए, अंततः, रविवार, आवेग, नया प्रतीक, हंस, वर्तमान साहित्य, समकालीन भारतीय साहित्य, वसुधा, सृजनगाथा आदि में प्रकाशन ।

0 रेडियो प्रसारण-
आकाशवाणी-दूरदर्शन से कविताओं का प्रसारण

0 अन्य-
यदा-कदा छुटपुट कहानियों एवं लेखों का प्रकाशन
कुछ कविताएँ अँग्रेज़ी में
फोटोग्राफी एवं यात्रा में अभिरुचि


0 सम्मान-
कविता के लिए म.प्र.हिंदी साहित्य सम्मेलन, भोपाल का 1995 का वागेश्वरी पुरस्कार


0 संपादन-
सन् 1980 में कविता पत्रिका 'जारी' का प्रकाशन-संपादन
छत्तीसगढ़ी की एकमात्र पत्रिका लोकाक्षर में संपादन सहयोग

0 संप्रति-
स्वतंत्र लेखन
0 पता-
इंदिरा भवन, 27/622, न्यूशांति नगर, रायपुर (छत्तीसगढ़), 492007


0 दूरभाष-
0771-2422753

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चाय

क्या लाऊं बाबूजी ?
भजिया, बड़ा, समोसा-अभी निकला है
भजिया ले आओ
लाया बाबूजी
साब को एक पिलेट भजिआ
और बाबूजी
एक हांफ
साब को (स) पेसल हाफ
.............
.............
45 पइसे
क्या दिया बाबूजी ?
एक रुपया
.............
.............

पान

मीठा बाबूजी
हं अ
14 पइसे
नइ, सिंगल मीठा लगाओ
अच्छा बाबूजी
सुर्ती बाबूजी
नइ
बीड़ी तमाखू बाबूजी
नइ, सिरिफ मसाला-चमनबहार
ये तो गर्भवती पान है बाबू बाबूजी
(धत् बीबी गर्भवती है उफ् !)

सिनेमा

घर में बैठे-बैठे क्या करोगे, क्या झख मारोगे
चलो आज सिनेमा चलें
क्या बताऊं यार बस कड़की है
क्या नाक में रोते हो यार
अबे चल न
ये देख ।
रद्दी फिलिम है यार
बाबूलाल चले
(दो कलियां)
अबे नइ
प्रभात चलें
(अनाड़ी)
ऊं..........अ....
राजकमल चलें
(डेथ इज क्विक)
नईं ई....ई......ई.....
अच्छा श्याम चलें
(तीसरी कमस)
यस्स,- फर्स्ट क्लास डेढ़ रुपैया
सेकंड ’’ एक रुप्पैया बीस पईसा
थर्ड ’’ बारा आना
अब से सिनेमा नई देखेंगे ।

रोड

चूतियापा है
जनतन्त्र में भी बल्ब फ्यूज्ड हैं
हट गुरु, उधर नई देखना
हम तो इधर देखेगा, इध्धर सामने
साली चलती यूं-यूं है
नागन है नागन
और कमर, हायरे जालिम, मैं तो जाऊं कुरबान
तलवार है, तलवार-बस चिक्क से
हम तो बीच वाली को पसंद करता
(क्या बोला यार, तेरे मुंह में दूध-भात)
उफ !
भुर्र चीनाबादाम
पर यार जेब तो मखमल है
क्या बोला ये भी मखमल है !

सट्टा


अबे 5 बाई 7 लगायेगा तो क्या बाबाजी का धरेगा
साला मानता इ नइ ।
जा, जा, चल फूट, ऐरे-गैरे-नत्थू खैरे
जब देखो 3 बाई 7, 6 बाई 1, 8 बाई 2
खांमों-खां चिकचिक करता
रस्ता नापने को बदा होगा तो नाप लेगा ।
क्या मैं अपने मन की कुछ भी नई कर सकता ?
(यहां ऐसा ही होता है)
4 बाई 3 लगायेगा आज, राशि का शुभांक जो है
नौकरी तो मिलती इ नइ
सब गउ खा लिये हैं
ग्रेजुएशन क्या किया झांड़ झोंका, भांड़
बेकारी
ऊपर से सुबारी1 फिर बच्चा
डिग्री को पोंगली भरेगा नइ तो क्या माथे में चटकायेगा
घूमेगा नइ तो क्या खुराना2 चन्द्रशेखर3 बनेगा
खाली बैठा कुछ तो करेगा या फिर भूख मरेगा
हम तो सट्टा लगायेगा, सट्टा 4 बाई 3
जा, जा बता दे-क्या बिगड़ता है
भीख तो नहीं मांगा- सट्टा ही खेला
क्या भूल गया मोरारजी की पांच साली योजना ?
हम तो पागल हो जायेगा
इस जन्तर-मन्तर (जनतंत्र) में ।

1 पत्नी 2 नोबल पुरस्कार विजेता जिसे भारत में नौकरी नहीं मिली 3 फर्स्ट क्लास इंजीनियरिंग ग्रेजुएट जिसे नौकरी नहीं मिली, कहीं हार्टफेल से मर गया

सुबह का भूला देश जो शाम को घर नहीं आता

‘राम-राम’ भजने की मुद्रा में आदमी
पर्दे पर हाजिर होता है-
एक बिना तल्ले का जूता
फोटो न खिंचवा सकने के एवज में
शहर में
उदास आदमियों के लिये उदास जूड़े हैं ।
अजायबघर हैं
जहां हूबहू आदमी की शक्ल की मूर्तियां है ।
मूर्तियां जो
जनतंत्र की सरकारी गवाह हैं ।
अखबार की सरकारी गवाह हैं ।
अखबार में छपा हुआ रहता है
देश का मौसम
मौसम का हाल
जो थूके हुए पीक की तरह है
और पीक दान देश !
व्यवस्था से ऊबकर हर रोज एक सूरज
संसद में फेंकता है
जूता
लेकिन जूते की रफ्तार गोली की तरह नहीं होती ।
बेचारा
सुबह का भूला देश
शाम को भी घर नहीं आता ।
जनतन्त्र
इनाम में मिला कब्रिस्तान है
जिसके चौखट पर श्रीमान देश का जड़ा सलाम है ।
शासन की गधेगाड़ी को हांकने की प्रतीक्षा में रत भीड़
जिसके पास आत्मसम्मान का साधन नहीं
उसका आत्महत्या के लिये करता है बाध्य ।
मौसम
अब खुलकर सामने आ गया है ।
मैं क्या पहिनूंगा
कपड़े सब कफन के काम आ चुके ।
कहां बैठूंगा ?
कुर्सियों पर तमाम मुर्दे बैठें हैं ।
मेरे पास
अब केवल एक देश बचा है
जौ बैलगाड़ी से गधागाड़ी हो गया है ।
मेरे हाथ का चाबुक हवा में चलकर
मुझे ही पीटता है ।
मैं निःवस्त्र, खाली हाथ लौटा
दिया गया हूं
उसी नेहरू के जनतन्त्र में