सुबह का भूला देश जो शाम को घर नहीं आता

‘राम-राम’ भजने की मुद्रा में आदमी
पर्दे पर हाजिर होता है-
एक बिना तल्ले का जूता
फोटो न खिंचवा सकने के एवज में
शहर में
उदास आदमियों के लिये उदास जूड़े हैं ।
अजायबघर हैं
जहां हूबहू आदमी की शक्ल की मूर्तियां है ।
मूर्तियां जो
जनतंत्र की सरकारी गवाह हैं ।
अखबार की सरकारी गवाह हैं ।
अखबार में छपा हुआ रहता है
देश का मौसम
मौसम का हाल
जो थूके हुए पीक की तरह है
और पीक दान देश !
व्यवस्था से ऊबकर हर रोज एक सूरज
संसद में फेंकता है
जूता
लेकिन जूते की रफ्तार गोली की तरह नहीं होती ।
बेचारा
सुबह का भूला देश
शाम को भी घर नहीं आता ।
जनतन्त्र
इनाम में मिला कब्रिस्तान है
जिसके चौखट पर श्रीमान देश का जड़ा सलाम है ।
शासन की गधेगाड़ी को हांकने की प्रतीक्षा में रत भीड़
जिसके पास आत्मसम्मान का साधन नहीं
उसका आत्महत्या के लिये करता है बाध्य ।
मौसम
अब खुलकर सामने आ गया है ।
मैं क्या पहिनूंगा
कपड़े सब कफन के काम आ चुके ।
कहां बैठूंगा ?
कुर्सियों पर तमाम मुर्दे बैठें हैं ।
मेरे पास
अब केवल एक देश बचा है
जौ बैलगाड़ी से गधागाड़ी हो गया है ।
मेरे हाथ का चाबुक हवा में चलकर
मुझे ही पीटता है ।
मैं निःवस्त्र, खाली हाथ लौटा
दिया गया हूं
उसी नेहरू के जनतन्त्र में

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