परिचय


0 भगतसिंह सोनी 0


0 जन्म-
रायपुर, छत्तीसगढ़, 25 सितम्बर, 1947

0 शिक्षा-
बीएस.सी, एम.ए


0 व्यवसाय-
पहले पहल मास्टरी पश्चात बैंक में अफ़सरी-मैनेज़री

0 लेखन-
-कविता लेखन की शुरूआत सन् 1968 से । हिंदी एवं छत्तीसगढ़ में समानांतर लेखन

0 कविता-पुस्तकें


- नये स्वरः3, (छत्तीसगढ़ी का तारसप्तक), प्रथम संकलित कवि, प्रकाशन वर्ष-1969


- रहँचुली(छत्तीसगढ़ी की लंबी कविता) प्रकाशन वर्ष-1974


- नहीं बनना चाहता था कवि, प्रकाशन वर्ष-1974


- राजा कुँआ, भारतीय ज्ञान विज्ञान समिति, दिल्ली द्वारा जन वाचन आंदोलन, राष्ट्रीय साक्षरता मिशन के तहत प्रकाशित ।


0 कविताओं का प्रकाशन-
देश की साहित्यिक पत्रिकाओं यथा-संज्ञा, राष्ट्रबंधु, कृति परिचय, बिंदु, कल्पना, साक्षात्कार, इसलिए, अंततः, रविवार, आवेग, नया प्रतीक, हंस, वर्तमान साहित्य, समकालीन भारतीय साहित्य, वसुधा, सृजनगाथा आदि में प्रकाशन ।

0 रेडियो प्रसारण-
आकाशवाणी-दूरदर्शन से कविताओं का प्रसारण

0 अन्य-
यदा-कदा छुटपुट कहानियों एवं लेखों का प्रकाशन
कुछ कविताएँ अँग्रेज़ी में
फोटोग्राफी एवं यात्रा में अभिरुचि


0 सम्मान-
कविता के लिए म.प्र.हिंदी साहित्य सम्मेलन, भोपाल का 1995 का वागेश्वरी पुरस्कार


0 संपादन-
सन् 1980 में कविता पत्रिका 'जारी' का प्रकाशन-संपादन
छत्तीसगढ़ी की एकमात्र पत्रिका लोकाक्षर में संपादन सहयोग

0 संप्रति-
स्वतंत्र लेखन
0 पता-
इंदिरा भवन, 27/622, न्यूशांति नगर, रायपुर (छत्तीसगढ़), 492007


0 दूरभाष-
0771-2422753

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चाय

क्या लाऊं बाबूजी ?
भजिया, बड़ा, समोसा-अभी निकला है
भजिया ले आओ
लाया बाबूजी
साब को एक पिलेट भजिआ
और बाबूजी
एक हांफ
साब को (स) पेसल हाफ
.............
.............
45 पइसे
क्या दिया बाबूजी ?
एक रुपया
.............
.............

पान

मीठा बाबूजी
हं अ
14 पइसे
नइ, सिंगल मीठा लगाओ
अच्छा बाबूजी
सुर्ती बाबूजी
नइ
बीड़ी तमाखू बाबूजी
नइ, सिरिफ मसाला-चमनबहार
ये तो गर्भवती पान है बाबू बाबूजी
(धत् बीबी गर्भवती है उफ् !)

सिनेमा

घर में बैठे-बैठे क्या करोगे, क्या झख मारोगे
चलो आज सिनेमा चलें
क्या बताऊं यार बस कड़की है
क्या नाक में रोते हो यार
अबे चल न
ये देख ।
रद्दी फिलिम है यार
बाबूलाल चले
(दो कलियां)
अबे नइ
प्रभात चलें
(अनाड़ी)
ऊं..........अ....
राजकमल चलें
(डेथ इज क्विक)
नईं ई....ई......ई.....
अच्छा श्याम चलें
(तीसरी कमस)
यस्स,- फर्स्ट क्लास डेढ़ रुपैया
सेकंड ’’ एक रुप्पैया बीस पईसा
थर्ड ’’ बारा आना
अब से सिनेमा नई देखेंगे ।

रोड

चूतियापा है
जनतन्त्र में भी बल्ब फ्यूज्ड हैं
हट गुरु, उधर नई देखना
हम तो इधर देखेगा, इध्धर सामने
साली चलती यूं-यूं है
नागन है नागन
और कमर, हायरे जालिम, मैं तो जाऊं कुरबान
तलवार है, तलवार-बस चिक्क से
हम तो बीच वाली को पसंद करता
(क्या बोला यार, तेरे मुंह में दूध-भात)
उफ !
भुर्र चीनाबादाम
पर यार जेब तो मखमल है
क्या बोला ये भी मखमल है !

सट्टा


अबे 5 बाई 7 लगायेगा तो क्या बाबाजी का धरेगा
साला मानता इ नइ ।
जा, जा, चल फूट, ऐरे-गैरे-नत्थू खैरे
जब देखो 3 बाई 7, 6 बाई 1, 8 बाई 2
खांमों-खां चिकचिक करता
रस्ता नापने को बदा होगा तो नाप लेगा ।
क्या मैं अपने मन की कुछ भी नई कर सकता ?
(यहां ऐसा ही होता है)
4 बाई 3 लगायेगा आज, राशि का शुभांक जो है
नौकरी तो मिलती इ नइ
सब गउ खा लिये हैं
ग्रेजुएशन क्या किया झांड़ झोंका, भांड़
बेकारी
ऊपर से सुबारी1 फिर बच्चा
डिग्री को पोंगली भरेगा नइ तो क्या माथे में चटकायेगा
घूमेगा नइ तो क्या खुराना2 चन्द्रशेखर3 बनेगा
खाली बैठा कुछ तो करेगा या फिर भूख मरेगा
हम तो सट्टा लगायेगा, सट्टा 4 बाई 3
जा, जा बता दे-क्या बिगड़ता है
भीख तो नहीं मांगा- सट्टा ही खेला
क्या भूल गया मोरारजी की पांच साली योजना ?
हम तो पागल हो जायेगा
इस जन्तर-मन्तर (जनतंत्र) में ।

1 पत्नी 2 नोबल पुरस्कार विजेता जिसे भारत में नौकरी नहीं मिली 3 फर्स्ट क्लास इंजीनियरिंग ग्रेजुएट जिसे नौकरी नहीं मिली, कहीं हार्टफेल से मर गया

सुबह का भूला देश जो शाम को घर नहीं आता

‘राम-राम’ भजने की मुद्रा में आदमी
पर्दे पर हाजिर होता है-
एक बिना तल्ले का जूता
फोटो न खिंचवा सकने के एवज में
शहर में
उदास आदमियों के लिये उदास जूड़े हैं ।
अजायबघर हैं
जहां हूबहू आदमी की शक्ल की मूर्तियां है ।
मूर्तियां जो
जनतंत्र की सरकारी गवाह हैं ।
अखबार की सरकारी गवाह हैं ।
अखबार में छपा हुआ रहता है
देश का मौसम
मौसम का हाल
जो थूके हुए पीक की तरह है
और पीक दान देश !
व्यवस्था से ऊबकर हर रोज एक सूरज
संसद में फेंकता है
जूता
लेकिन जूते की रफ्तार गोली की तरह नहीं होती ।
बेचारा
सुबह का भूला देश
शाम को भी घर नहीं आता ।
जनतन्त्र
इनाम में मिला कब्रिस्तान है
जिसके चौखट पर श्रीमान देश का जड़ा सलाम है ।
शासन की गधेगाड़ी को हांकने की प्रतीक्षा में रत भीड़
जिसके पास आत्मसम्मान का साधन नहीं
उसका आत्महत्या के लिये करता है बाध्य ।
मौसम
अब खुलकर सामने आ गया है ।
मैं क्या पहिनूंगा
कपड़े सब कफन के काम आ चुके ।
कहां बैठूंगा ?
कुर्सियों पर तमाम मुर्दे बैठें हैं ।
मेरे पास
अब केवल एक देश बचा है
जौ बैलगाड़ी से गधागाड़ी हो गया है ।
मेरे हाथ का चाबुक हवा में चलकर
मुझे ही पीटता है ।
मैं निःवस्त्र, खाली हाथ लौटा
दिया गया हूं
उसी नेहरू के जनतन्त्र में

जनतन्त्र के चिलम में


सभी लोग अपनी-अपनी आंखों में घड़ियां बांधे
मूहूर्त का इंतजार कर रहे थे-
प्रसव-पीड़ा से कराहती पत्नी
सिंधियों की कपड़ा कूटने की लकड़ियां
सड़क पर रिक्शे-टांगे की चकतियां
गली में सटोरियों के रिकार्ड
और मिल के भोंपू सभी बोल रहे थे ।
अपनी-अपनी मातृभाषा
पर एक मैं था
जिधर से कुछ नहीं हुआ
केवल मेरे भीतर के पके अंधेरे को फोड़ते हए
मुर्गे ने बांग दी
सोलह आने सच लड़की हुई ।
पहाड़ीनूमा अंधियारे के बीच
गन्जी, डेचकी और कोपरी की
फड़फड़ाती चीख से भी
मेरे भीतर का सन्नाटा नहीं टूटा
मूझे लगने लगा कि मेरे हाथों में हथकड़ियां
डाल दी गयी हैं
पर इधर जब नींद टूटी तो
सूरज छत्ते के समान था और
मैं कटघरे में था । मैंने सिर हिला दिया
जूरियों के एक झण्ड ने कह दिया –
‘फांसी के फंदे पर लटका दो इसे’
उस वक्त मेरे हाथों में जंजीरें थी
पिस्तौल नहीं ।
जनतंत्र के चिलम में ठूंसी गई जिन्दगी के खिलाफ
जब-जब मैंने मतदान करना चाहा
हाथ मेरे फड़फड़ाने लगे
और मैंने हाथों में मतदान-पत्र की जगह एक दस का नोट पाया ।
ऐसे ही अनेक अवसरों, ऋतुओं, जलसों व मुहूर्तों में
कुचल दी गई
मेरी अच्छी मां मातृभाषा ।

0

न्यूटन के गरूत्वाकर्षण के बावजूद
जिन्दगी के ठेले को धकेलते हुए
एक प्रौढ़ा दुःख
मुझे जंजीरों में बांध लेती है।
शब्दों के जंगल से
प्रार्थना के फूल नहीं मिलते मुझे
और चीखों के फूल से
संतुष्टि की महक।
केवल शहर की छाती पर खड़ा जयस्तम्भ
पर लाल तिकोन का
विज्ञापन खींचता है।
इस वक्त एक होंठ काटती हुयी
खूबसूरत लड़की
इन्टरवेल में दिखायें गये
स्वाइड-सी लगती है।
चाहे वह लोहे का धंधा हो
या फार्म का
यह केवल एक नाटक है
जिसके नायक मैं या तुम नहीं
हमसे भिन्न कोई और है
भाई, हमारे पेट बहुत गहरे हैं।

अचूक निशाने पर

अचूक निशाने पर गोली दागने के पहले
रह-रह कर दूध पीती विटिया
ख्याल आती है
और मैं फिर धंस जाता हूं
उसी व्यवस्था में
(जहां से निकलकर भागने की
(ना-)कामयाब कोशिश की थी मैंने)
सुबह-सुबह
आज मेहत्तर नाई ने
एक अच्छी बात कही-
दाढ़ी वनवाने के दौरान
अक्सर क्यों हम
मूछें भी साफ करवा लेते हैं ?
मैंने समझा कि वह
राजनीति पर बोल रहा है
पर उसने कहा कि
वह तो मर्दानगी पर बोल रहा है।
मैं क्या कहता
मुझे आने लगी शर्म
कि मर्दानगी क्यों नहीं है
मेरे पास ?
और मर्दानगी क्यों नहीं है
अपने राम देश के पास।
अगर यह बात नहीं
तो आखिर कौन-सी चीज है वह
जो अक्सर हमें रोकती है
कुछ करने को।
आखिर क्यों हम खाली बोतल में
डॉट की तरह हैं ?

चार स्थितियों से गुजरता : मैं


मैंने अपने चेहरे पर
सीमेंट के पसस्तर लगा लिये हैं
ताकि झेल सकूं लोहे के थप्पड़।
000
मैंने अपनी आंखों में
पत्थर के चश्मे लगा लिये हैं
ताकि न देख सकूं पथरीली रोशनी
जो गड़रिये के घर से शुरू होकर
(शाम) सेठ के घर मुंह धोती है।
000
मैंने अपे कानों में
फिट कर लिया है-डॉट
ताकि न सुन सकूं
सर्दीला मर्सिया गीत,
जो बिस्तर से शुरू होकर
बूढ़े कब्रिस्तान तक गूंजती है।
000
मैंने अपने मुंह में ‘ब्लेक प्लेट’
ठोंक रखा है-
ताकि न गा सकूं रंभाते बछड़े के गीत
जो कोठार से शुरू होकर
ड्राइंगरूम तक पहुंचती है।

शीर्षकहीन


कानों में भोजली खोंसकर
अब मैं तुमसे कौन सा नाटक खेलूं ?
सरासर झूठ बोलने से कोई फायदा नहीं होगा
इस जनतंत्र में अब कोई भी भविष्यवाणी
हस्तरेखाओं से मेल नहीं खाती
एक सीढ़ी,जो कुतुबमीनार की तरह है
योजनाओं की
खड़े होकर इन आंखों से देखा जा सकता है तमाम दृश्य
(जो खुल्मखुल्ला है)
घर से जो भिलाई बहुत नजदीक है-मेरे,
पेट के लिये दरवाजा नहीं खोल सकती
भाखरा यदि न भी भसके तो क्या
राशन बन सकेगा ?
सनसनाता हुआ एक गुच्छा अंधेरे का
मेरे सामने फेंक दिया है
जिस तरह
चिड़ियों के सामने फेंक दिया गया है
एक झोला
जिस पर महावीर छाप अगरबत्ती का विज्ञापन
और एक हद तक
जो राष्ट्रीय-ध्वज के तुल्य है
सब जगह है
एक सांप
जिसने आदमी का चेहरा पहन रक्खा था
मेर सामने मुस्कराता रहा
उसके लिए समझौते की उम्मीद करता
दुःख इस बात का
उस वक्त मेरे हाथों में पिस्तौल नहीं । केवल
राशन कार्ड था,
अभी-अभी ही एक चितकवरी गाय
मेर दरवाजे पर आयी है
बोलो, मैं उससे क्या कहूं ?

उड़नछू

मैंने घुसते ही जाना
कि वह है गेटवे ऑफ इण्डिया।

मैं उत्साहित होने ही वाला था
कि कर दिया गया
कबूतरों की उड़ान से
चौकन्ना।

त्रिमूर्ति

एलीफेण्टा गुफाओं की त्रिमूर्ति से
मिलाता रहा
अपना चेहरा
कहीं कुछ फर्क नहीं दिखा।

मैंने सेल्यूट की तरह ही
दाग दी हँसी।

मेरी हँसी बाजू खड़े जोड़े ने
चुरा ली,
मैं मूर्ति हो गया।

दूध गंध

नदियाँ अपने बिस्तरों पर पड़ी रहीं
मैंने जगाया नहीं उन्हें।

उन की आँखों में
मैंने नहीं देखा
दूध-घी

केवल खोलता हुआ लहू था

दूध गंध
फिर किधर से आई ?

चुनाव

मैंने हारकर
चुन लिया है एक सूखा वृक्ष
जिसकी जड़ें गई है धरती के छोरों तक
निकलेंगे ही एक दिन हरे पत्ते।

चिड़िया - दो कविताएँ

चिड़िया -1

हवाएँ दूर वन से
नहीं आ रही हैं
न तो कोई भूकम्प हुआ है, भारी
इधर केवल
एक चिड़िया
डगाल से उड़ी है।
........

चिड़िया-2

चिड़िया
डगाल पर
एक अर्से से चुप बैठी है।

न आजू हवा है
न बाजू पानी
उसके पास एक मँजी-मँजाई
भाषा है।

चहचहाना अब उसका जुर्म
हो गया है
उसकी चहचहाहट
अब लोगों ने चुरा ली
तो वे उसमें
अब एक नयी भाषा की तलाश
कर रहे हैं।

मैंने परसों
एक चिड़िया देखी
जो घोंसले से निकलकर
पैदल चली आ रही थी
और लोग सब
अपने-अपने घोंसलों में
चिड़िया हो गए थे

मैं चिड़ियों का झुण्ड नहीं हो सका।
सोचता रहा
डगाल पर
चिड़िया चुप क्यों बैठी है ?
आजू हवा क्यों नहीं है ?
बाजू पानी क्यों नहीं है ?

पेड़

एक पेड़ है
हवा है
बारिश के पहले-
जो घोंसले हैं
हिल रहे हैं।

हिलता हुआ दिन है
हिलती हुई रात है।
उजाले कम्पास में भरकर दौड़ते हुए
अँधेरे से हाथ रँगे हैं
खामोशी की तरह ही
टूटे हैं कमीज़ के बटन।

जैसे, पूरा समय घड़ी से कूदकर
डगाल पर अटक गया हो
और डगाल कंगाल हो।

सब कुछ दिखता रहा
जैसे पहाड़ की तरह चिड़ियाँ
गिनती की तरह भविष्य।

हम अपनी उँगलियां गिनते हुए
पेड़ के नीचे खड़े रहे।

गहराई


सन्नाटे में गुँथा हुआ है
एक कुआँ मन
कोई एक पत्थर शोर का मारता है
बुलबुले की जगह
बाहर आता है वही परिचित चेहरा।
किनारे होंठो से बँधी हुई
एक सूखी झील है।
सन्नाटे में सना हुआ है चेहरा
पहचान के लिए लोग अपने साथ
चेहरा भर उत्साह लाये हैं।

कहीं कुछ कहने के पहले
अपने-अपने कुएँ की गहराई नापें।

गुलदस्ता

उतरा हुआ चेहरा नहीं चाहिये
उसे सन्दूक में रख सकते हैं
चेहरा संदूक है
(सन्दूकइन होने से बचें)
क्या मुश्किल है कि
सभी के पास चेहरे हैं
चेहरे में चारों धाम हैं
आँख
कान
नाक
मुँह
मेरे घर से
अजायबघर बहुत नकदीक है
जबकि अपना चेहरा
मैंने बहुत सम्हाल कर रखा है।
क्या वह सोना है

किले का फाटक बड़ा है
मेरे चेहरे का फाटक
किले के फाटक का समानुपाती नहीं है।

एक बड़ा बाग है
बाग में फूल हैं
चिड़ियों की चहचहाहट है
क्या बाग में फूलों का गुलदस्ता / या
चिड़ियों की चहचहाहट का खजाना
बनाया जा सकता है
लो! मैंने अपना चेहरा
गुलदस्ता या खजाना होने से
बचा लिया है
इस काम में
मुझे किसी की सहायता (लेने) की
जरूरत नहीं पड़ी।

भूकम्प-बोध

मेरी नींद
हवाई जहाज की दूसरी उड़ान से खुल गई़
जैसे खुल जाते हैं
आँखें के कपाट
दृश्यों की आवाज से।

गड़गड़ाता हुआ दृश्य
घिर्री भीतर खींचता है
मैं पानी खींचकर
आँखें धो लेना चाहता हूँ
पर कुआँ नहीं है
न पानी नल में-
नींद की गर्दन मरोड़कर
आँखों में रख दी है।

आँखों में पूरा घर
बाढ़ में तैरता हुआ
लकड़ी के गट्ठे-सा लगा
जिसमें से रह-रह कर
कभी मेरी पत्नी तो कभी बच्चे
झाँकते रहे पलक बनकर।

अपनी पलकों और पैरों को सम्हालते हुए
जैसे पलकों में घर और
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पेरियार होस्टल के
तीसरी मंजिल के किसी कमरे में
इन्तजार कर रहा हूँ
सोंधी सुबह की
कि अचानक धऱती का फैन बेल्ट टूटा !
या पाताल-लोक का पानी हिला !
या धरती हँसी !
यो रोयी !
या सुस्तायी !
(जैसे वह काम कर रही हो)
खुले केश वाली वह लम्बी काली लड़की
लड़कों की टोली में,
सिगरेट पीती हुई मैदान पर थी-लगातार
भूकम्प और सरकार पर
बत्तीसी निकालती हुई।

लड़कों को इस वक्त सोए रहना था
मेरे पीछे वाले लड़के ने टोका
इस 9-के सुबह सिरीज में
यह पहला मौका नहीं हैं, जबकि
लड़के जाग रहे हैं
लड़कियाँ जाग रही हैं।

केवल तीसरी मंजिल से
गड़बड़ी देखते हुए
मैं उसे ग्राफ से अंकित कर रहा हूँ
मुझे ग्राफ में
मेरा अपना घर धँसा हुआ दिखता है-
घँसे हुए घर के दरवाजे पर
बना स्वस्तिक अब त्रिशूल हो गया है
जबकि पूरी जमीन हिल-डुल गई है
सोती हुई लड़की की तरह ।


(जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय पेरियार होस्टल की तीसरी मंजिल पर भूकम्प बोध)

माइक्रोफोन

ये जो माइक्रोफोन है न
गूँगा है।
ये मुझसे
मेरी आवाज
उधार माँगता है।

माइक्रोफोन,
क्या ऐसा नहीं हो सकता
कि आज सिर्फ तू ही बोले
और मैं चुप रहूँ ?

बचपन

बचपन से कितनी दूर आ गया हूँ
कि अब लौटा नहीं जा सकता।
घुटनों के बल
चलते हुए बेटे को देखकर
फिर याद आया
बचपन।

माँ कहती है
मेरा बचपन
मेरे बेटे की तरह
जहाँ हमेशा सुबह ही सुबह होते।
तो क्या यह मेरा बचपन है
मेरे सामने

राजा-रानियों से जूझता मेरा बचपन
भूकम्प लाता मेरा बचपन
किताबें पढ़ता-फाड़ता मेरा बचपन
बचपन के कितना नजदीक आ गया हूं मैं
कि अब लौटा नहीं जा सकता
मूझे लगता है,
कि बचपन अब मेर घुटने में कैद है।

फूल और हम

तितलियों के आने से
छूट गये फूलों के पसीने-
पर वे परास्त नहीं हुए।
परास्त हुए जा रहे
और हम अपने ही पसीने से

परास्त पसीने
कुछ नहीं कर सकते-
शोर भी नहीं।

स्मृतियाँ

वह अपनी सड़ी स्मृतियों के भीतर
धीरे से पहुँचा
और वहाँ से निकाल लाया जूता।

जूते में पूरी की पूरी पृथ्वी थी
और जूते के ऊपर पैर
वह उन पैरों के सहारे
खड़ा होता रहा।

वह कहता है- “यह कैसी पृथ्वी है-
जहां जूते ही जूते
नजर आ रहे हैं।”

उसने सभी लोगों से कहा-
कि अपने-अपने जूते उतार लें
फिर उसने
पृथ्वी को चमड़े से ढंक देने की
इच्छा से
अपना जूता भी उतार दिया।

तब से उसने
अब तक जूते नहीं पहिने।

ज्वालामुखी

तुममे से जब-जब आग झरे
उन्हें सँभाले कर रखना
(पर उसे कहाँ रखोगे
यह एक समस्या है)
उन्हें जहाँ भी रखोगे
वहाँ आग लग जाएगी।

उसे झरने से रोको
पचा डालो
भीतर ही भीतर।

वे जब भी निकलेंगे
ज्वालामुखी होंगे ।

गांधी

मुझे सभी पाना चाहते हैं
पहले
तुम्हारी माचिस में
जितनी भी कड़ियाँ हैं
उन्हें फेंक दो-
मैं तुम्हें जरूर मिलूँगा।

मछली की इच्छा

गोबर बीनकर घर लौटती हुई
लड़कियाँ का उत्साह या गरमाहट
क्या सूरज सोख लेता है

आज सूरज
पहले से ज्यादा रक्ताभ है।

लड़कियों के चेहरे
अब नदी नहीं हैं-
मछलियों का कुछ अता-पता नहीं
मछलियां अब नदी छोड़कर
लड़कियों के टोकरों में
छिप गयी हैं-
मछुआरों से बच जाने के लिए।

मछलियाँ खुश हैं कि
वे अब चुपचाप चूल्हों पर पक जायेंगी
लड़कियों को फिर से
रक्ताभ बनाने के लिए।

शीर्षकहीन


औरतों को देखकर कुछ भी नहीं कहा जा सकता
कि वे भोली हैं, उदार या क्रूर
औरतें औरतें ही हैं
इस पृथ्वी पर ललकती हुई।

एक समय में एक औरत पूरी जलवायु होती है
सम्पूर्ण शरीर के साथ।

औरत जैसे आग में तपा हुआ एक गोला
सूरज तो कहीं नहीं ठहरता
पानी भरते नक्षत्र और तारे
जैसे दमकल ले आग बुझाने चले हों।

लगातार नक्शे से गाँव टूटते चले जा रहे हैं
फिर, फिर नींव रखती जा रही है औरत
बेहद चौकन्नी हुई औरत
एक बार फिर सँभलती है, सँवरती है
अपने को आइने में देखती है
हर सुबह
और सोचती है कि
कल फिर वह औरत ही होगी।

यहाँ ही नहीं है औरतें
औरतें त्रिभुवन में भी हैं
शंख बजाती हुई औरतें
पौधों में पानी डालती हुई औरतें
गोबर बीनती हुई औरतें
गोली दागती हुई औरतें
खाना परोसती हुई औरतें
हँसती-इठलाती हुई औरतें
दुःख-दर्द बाँटती हुई औरतें
इमली खाती हुई औरतें।

अँधियारे से बाहर

कमल हमेशा कीचड़ में खिलते हैं
कोयले के गर्भ से निकलते हैं
हीरे
अँधियारे से से निकलता है
चाँद ।
देखते रहना
मैं इसी तरह निकलूंगा
इस अँधियारे से बाहर।

राजा कुँआ

गरमी के दिनों में
जब इस गाँव के सारे कुँए सूख जाते हैं
तब भी बचा रहता है्
यहाँ एक कुँआ
राजा कुँआ।

वही जो मेहत्तरु के घर आँगन में
आम के पेड़ के बाजू
कब से है
किसी को पता नहीं

रजिया
दुकलहिन
ईश्वरी
मारिया
-कितने लोग हाथों में बाल्टियाँ और गुंडियाँ लिये
चले-चल पड़ते हैं।
वे जाते हुए आपस में
दुआ-सलाम करते जाते हैं।

पानी लेकर लौटते हुए
पसीने से तरबतर
वे सभी खुश दिखते हैं।

इस गाँव की यही खासियत है
राजा कुँआ है
और पानी मीठा।
सभी पीते हैं
राजा कुँआ का मीठा पानी।

मिट्टी-पानी

अपनी खेती और अपना पुश्तैनी धंधा
अपने गांव में ।
अपनी गृहस्थी और अपने पुरखों की गंध
अपने गाँव में।

अपनी सुखी रोटी और काँसे की थाली
अपने गाँव में ।
अपना बचपन का दोस्त बरगद और
इमली का पेड़
अपने गाँव में।

अपना कुलदेव और दादी के आँचल का छाँव
अपने गाँव में।

अपना तुलसी-चौरा और
अपने तीज-त्यौहार
अपने गाँव में।

अपना प्यारा जीवन और अपना मिट्टी-पानी
अपने गाँव में।

अरे,
नहीं जाएंगे शहर
उधारी छाँव में

सीने से लगा लो

हमें अपनी मिट्टी से प्यार होना चाहिए
हमेशा साथ देते हैं
अपनी मिट्टी और
अपना घर

हमें पहचानना चाहिए
अपनी मिट्टी का रंग
हमें जानना चाहिए उसकी महक
उसका स्वाद।
अपनी मिट्टी से सने
हमारे हाथ
हमारे पक्के दोस्त हैं।
विपत्ति में
अपनी ही मिट्टी और
अपने लोग साथ देते हैं।
छुओ
कि तम्हारे पैरों तले
गुमसुम मिट्टी है।
इसे उठाओ
और अपने सीने से लगा लो।

पेड़ों की तरह


एक हरा-भरा पेड़ काटना
एक हत्या करने के समान है।
हरे-
हरे
इठलाते पेड़
न जाने कब से खड़े हैं।
वे हमें ठंडी छाँव देते हैं
शुद्ध हवा
हम निहारते हैं
उनकी सुंदरता।

महर्षियों ने पेड़ों को देवता कहा है
पेड़ पूजे जाते हैं
कहते हैं
पेड़ हमें आशीष देते हैं।

वे हमें
फल, फूल और सुगंध भी देत हैं
हमें अपनी ही तरह
इनकी रक्षा करनी चाहिए।

तेज धुप
बारिश
अंधड़ और कड़कती ढंड में पेड़
चुपचाप खड़े रहते हैं(सब कुछ सहते)
तपस्वी बने।
पेड़ बोल नहीं सकते
वे केवल हहराते हैं
हमारे लिए
हम उनका हहराना सुनें।

बड़े निडर होते हैं : पेड़

हम
पेड़ों की तरह
हरे
और
निडर बनें।

चींटियाँ

हम कब तक अलग-अलग रहेंगे
चींटियाँ
जो दुनियाँ की
सबसे छोटी जंतु हैं-

वे कतारों में चलती हैं
संगठित रहती हैं
बिना धीरज खोए
अपने लक्ष्य की ओर बढ़ती हैं
चींटियाँ
हमें काटती हैं कभी -कभी
पर हम उन्हें मारते नहीं
हम उन्हें शरीर से निकालकर
धरती पर छोड़ देते हैं
और वे प्रसन्न होकर फिर चल पड़ती हैं
अपने रस्ते

चींटियाँ
मुश्किलों और तूफानों से नहीं डरतीं
वे पहाड़ों पर भी चढ़ जाती हैं
बेधड़क

फिर कोई चिता जली है


इस गाँव के नदी के किनारे
आज फिर कोई चिता जली है
फिर कोई भूख से मर गया होगा
या फिर
आगजनी हुई होगी
या हत्या
या बलात्कार
बीमार तो कोई नहीं था फिलहाल

क्यों जलती है यहाँ रोज
कोई न कोई चिता
कौन बोता है यहाँ
नफ़रत के बीज
किसकी करतूत है यह सब
कोई तो बताए

रोज
कोई-न-कोई आफत
कोई नहीं जानता
मारने वाला किधर से आता है
कहाँ जाता है
किस घर में छुपा है पापी़
हत्यारा
कोटवार
रोज दर्ज करता है
मरने वालों के नाम
अपनी डायरी में
मारन वाले का उसे
कुछ पता नहीं।

घड़ियाँ

घड़ियाँ
बंद होने के लिए ही बनी हैं।
इनके बंद होने से
सूरज तो उगना
नहीं छोड़ देगा
चिड़ियों का चहकना तो
बंद नहीं होगा
गायों का रंभाना तो नहीं होगा
बंद।

बंद होगी तो
केवल घड़ी।

सब कुछ
वैसा ही चलती रहेगा
जैसा पहले से
चलता आया है।

संगत

किताबें पढ़ने से ही
हम सब कुछ नहीं जान-समझ सकते
समझने के लिए
संगत करना भी जरूरी है।
संगत करने के
अनेक मायने होते हैं-

भले-ज्ञानी लोगों का संगत
कीट-पतंगों का संगत
जंगल और पहाड़ों का संगत
नदियों का संगत
झरनों का संगत

संगत से ही हम जान सकते हैं
शब्दों के अर्थ।

संगत से ही खुलते हैं
अंधियार के द्वार।

कलम छूटने न पाए

इस पृथ्वी पर
कलम का जन्म
हमारे लिए ही हुआ कि
हम लिखें।

हम लिखें
अपने दोस्तों को
हम लिखें अपनी माँ को
लिखें अपनी छोटी बहन को कि
राखी या ईद पर जरूर आना।

कलम हमारे हाथ से
छूटने न पाए।

अक्षर-ब्रम्ह

दो अक्षरों से बना है ‘राम’
हम ‘राम’ लिख नहीं सकते
हम ‘राम’ पढ़ नहीं सकते

अक्षर को जानना
ईश्वर को जानना है
ईश्वर ने दिया हमें जनम

कल सुबह
सूरज की पहली किरणों के साथ
हम शुरू करेंगे
अक्षर-ज्ञान,

हम पढ़ेंगे ‘राम’
हम पढ़ेंगे ‘रहीम’
हम लिखेंगे
‘भ’ से भारत

रहंचुली

फूलगोभी जइसन
अबादी वाला
मोर देस के कनिहा उप्पर
चढ़ गे हे
अंधियार के नार,
अंधियार के नार म लपटाये मनखे
अपन तेहरा ल हाथ म धर के
कथे
सइघ्घो हिन्दुस्तान
घेरी-बेरी
जीभ ह बताथे
के कतेक बड़ होथे
भूख के भविस,
अउ भविस के आंवर म
लपटाए (मनखे के)
जिए के ललक-
भूख के जंगल म
चिरई-चुरुगुन होगे,
अपने अंधियार के सत्तइसा ल टोरत
मय जान डारेंव
भीतरी रेंहे के सुख। राज
बेर-बेर
ये परजा-तंतर के
रहंचुली
म झूलत
अब मय जान डारेंव
चीन्ह डारेंव
बारूदी-कसीदा वाला
ठोनके / चीथे / हउहाए / चचुवाए
चेहरा,
एती-तेती
जात हवय गोड़
अउ गोड़ म बोइर के कांटा।
अइसनेच म
रांड़ी के पिलवा मन
ए कोलकी ले बुलक के
ओ कोलकी म जात हें
मय राजमारग नई बन सकेंव
अपनेच डेहरी म ठाढ़े-ठाढ़े
बिहनिच हो गेंव।
हाय दाई
का होगे मोला के
मोर लहू म घोरा गय
भेलाई,
रायपुर,
दिल्ली।
रोजेच,
एक ठन चरित्तर
भंदोई पहिन के अंधियारी पाख म आथे-
अंजोरी पाख
हमन बर
देवसुतनी अकादसी होगे।
बड़े फजर, बड़े फजर हो जाथे
फेर हमन विहानेच नई होय सकत
बिहान, सुरुज के पाछे हो जाथे।
अधियार के लोक-सभा,
पनही अऊ पांव के बीच्च के भुंइय्या
भुंइय्यां के भाखा म
मोर कविता-
एक ठन सुरुजमुखी पेड़।
हर बेर,
बेवस्था के खिलाफ जूझत मनखे
बेवस्था के कपार म टिकली बन के
रहि जाथे।

मोर देस, देस कम आय
सील जादा
हम मनखे मन पताल-मिरचा के चटनी अस
बिन नून के पिसावत हन
गनतंत्र के लोढ़िया में।
कइसे चलथे ये गनतंत्र के लोढ़िया (भकाभक)
हाथ,नइ जानव कइसे होगे हे चिरई
का हो जाहय ढलंग जाहय लोढ़िया
मंजा जाहय कजरहा
बगर जाहय फूल के रंग
खुल जाहय अकास के फइरका।

वो दिन
महानदी के फूल उप्पर ले निकलत रेहेंव
मोर चेहरा
महानदी मं गिरगे,
ओला बहुत खोजेंव
तभ्भोले नइ मिलिस,
बिहाने मय पंद्रा अगस होगेंव
सांझे छब्बीस जनावरी होगेंव।

अंधियार बिच्छी सरिख हो गे हे
सब्बोच कपाट म लग गे हे तारा
मय कहां जांव,
अब मय भविस ल
पान सरीख नइच्च तो चबाए सकंव,
तमाखू सरिख नइच्च तो खाए सकंव,
कब होहय हरेली,
कब होहय जवांरा
(घेरी-बेरी जारा मं छंउकत हंव अंधियार)
यहीत्तरा,
एक ठन सुआपांखी अंजोर
ल खोजत,
डेरी-जऊनी जात मोर पांव ।

अतेक बड़ सहर
कहूं चूरी म बंधाय
कहूं खोपा मं खोचाय हैं,
सक्कर अउ सुराज के गोठ
होथे अक्केच संग-
बपुरा मन
का कर सकथें
सिरिफ गोठियाए के.
जब ले डंगचगहा मन
बनें हें नेता
देखाथें जादू.
कुछ करे, गुने तो सकंय नहिं
उहीच्च ल फेर चुनथन
को जनी ये शहर क मनखे मन ला
का हो गे हे !

खेत मं नांगर जोतत फू्ल के रंग
हमन मं नई उतर सकय
नइ उतर सकय अकास के सरीर
घाम, अंजोर.
चोरहा हवा, करा अस जूड़ होगे हे
मनखे मन के सरीर, मरकी-दोहनी अस,
जम गेहे काई-कनटोप अस
का हो जाहय, उतर जाहय फूल के रंग
(मनखे में)
का हो जाहय उतर जाहय अकास के चुरी
का हो जाहय रद्दा-वाट मं बगर
जाहय घुप्प चेहरा.
अंधियार के नाक मं अंजोर के
फुल्ली पहिना जाहय। मनखे
तो का हो जाहय.
लगते सियान मन के गोठ सहींच रहिसे
“बुजापुत जनम के रेमटा मन ल जूड़ धरिस”
तो का कहंव । करवं
हम नाथ ल काटेच नइ सकन
लगथे हम अन अड़बड़ बेसरम हो गय हन
नइ फोरे सकन अकास के चूरी
नइ जानंव अब वो मछरी के पानी हवा कइसे होगे ?
केती हे वो धाम, बादर, अंजोर
केती है वो डुवा जेमा खोवत रेहेन
अकास, पिरिथिवी.

बेल के मनखे मन
बेंदरा सरिख हो गय हें
एक ठन सिहासिनी बेंदरिया
अपन हाथ मं
परजातन्त्र के लौड़ी ले
नाच नचावत हे
“नाच रे बेंदरा ! टुम्मक-ठम ,भई
ठुम्मक-ठुम।”

गणतंत्र ह अऊ ओकिया देइस
एक बेसरम अंधियार
मोर देश के कूबर उप्पर
एक ठन अऊ पहाड़.
कौन जानी किरन कोन कोती हो गेहे हिरन.
भइगे,
हमर मन बर रहि गे हे
एक ठन बूता
पेट पाटे के
अब आवत हे समझ मं
जिनगी जिये के नो हे
आय काटे के,
झख मारे वर जनमे हन
तब मारत हन
घरी-घरी एक ठन अलहन
जियत हन
टारत हन.
अपन जुग ल
खखौरी मं दाबे
ए कोलकी ले ओ कोलकी
किंजरत हंव.
सताब्दी ल तुतरू अस बजादत हंव
मोर बर अजादी ह
फुटहा हंड़िया हो गे हे,
जमाना ह कतेक बेर्रा ह गे हे
हमरे खाये
हमीं ल आंखी देखाथे.
हमरे सपना मं लग गे हे आगी
अऊ हरामी मन ओमा
चोंगी सिपचावत हें.

थर्मामीटर के पारा सरीख बरत
सहर के उदास अउ चपचपाए रद्दा मं
मय खोजत रेहेंव
मुसकान
मोर चप्पल के धुर्रा छड़ागे
मय
देखेंव
सब्बोच के चेहरा मं ठंगे है
मुरदाबली घाट के सन्नाटा
सन्नाटा भजकटइया के कांटा सरिख रहिस
वो चेहरा-बादर म हवईजहाज
उड़त रहिस
मय वोमा
नइ चढ़े सकेंच
मय खोजत रेहेंव मुसकान
रद्दा मं.

मोर मेर पहिली दू कान रहिसे
अब नइये.
नइ जानंव कइसे उड़ागे
हं, सिरिफ अतकेच जानथंव
वो दिन
अड़बड़ हवा-गर्रा आइस.
एक अइसनेच
हवा-गर्रा मोर भीत्तर घलोच्च
आइस वो ह गेड़ी म चढ़े रहिसे
मय ओख से पूछेंव
देस के हाल
वो कहिस-..............

मय एक कुनकुन मउसम म
चिरई रेहेंव
फेर अब मय चिरई नइ रहि गेंव
मउसम घलो नइ रहिगे कुनकुन
अब वोहा बज्जात हो गे हे।
मय
घोड़ा हो गेय हंव
मउसम ह निपोर देय हे दांत
मय ओखर दांत गिना सकथंव
दूबी अड़बड़ सुघ्घर चीज ए
मय ओला देखके
हिनहिना सकथंव।
मोर मेर बहुत अकन मया
अइसनेच नइ परे ए
मय ओला कहूंच फेंक या थूक
नइ सकंव
मय ओला कभू टोर या भांज
नइ सकंव

वक्तव्य


मेरे हमउम्र लोग आज जो कुछ भी लिख रहे हैं उसे अनुशासनहीन, अमानवीय, ढीठ और आक्रोशी लेखन कहा जाने लगा है। मैं नहीं जानता कि ऐसा कहने वाले “अनुशासनहीनता” से क्या समझते हैं ? माना कि आज का लेखन अनुशासनहीन है, आक्रोशी है-तो क्या बुरा है ? क्या यह युवापन की निशानी नहीं है ? हमें आस्था है इस लेखन पर और इस आस्था और संषर्ष की बदौलत हम आज के ठहराव को तोड़ सकते है।

कवितायें जो आज-कल लिखी जा रही हैं वे मुझे रूढ़ नजर आती हैं-खासकर भाषा के लिहाज से। मुझे भाषा को तलाश की आवश्यकता महसूस नहीं होती क्योंकि मेरे पास है वह । मैं तलाशना तभी उचित समझता हूँ जब कोई चीज गुम जाये पर, जहाँ तक मैं समझता हूँ अभी वह ऐसी स्थिति में नहीं है।

तो मैं कह चुका हूँ कि भाषा को तलाशने की आवश्यकता महसूस नहीं होती । बल्कि वह मुझे तलाशती है। मेरे आसपास एक ऐसी भाषा चूमती है या यूं कहूं कि वह 24-सों घंटे घूमती है जिससे यदि मैं लाख चाहकर भी भागने की कोशिश करूँ तो नहीं भाग सकता। इसे मैं रोजमर्रा की भाषा कहना चाहूँगा (पर सच तो यहा है कि “रोजमर्रा” शब्द मुझे संतोष नहीं दे रहा-) मैंने इसी भाषा के बीच अपना बचपन देखा है ओर युवापन भी देख रहा हूँ और अपना अन्तिमपन भी इसी भाषा के बीच ही देखूँगा। यह चालू भाषा (‘रोजमर्रा’ शब्द को हटाकर अब ‘चालू भाषा’ कह रहा हूँ) मेरे साथ इस कदर चिपकी हुई है जैसे कि शरीर में जोंक । मुलाहजा फरमाइये कि आप अपने दैनिक जीवन में किस भाषा का उपयोग करते हैं, क्या उस भाषा का जिसका उपयोग अपनी कविताओं में कहते हैं ? नहीं, बिलकुल नहीं ! तब फिर ईमानदारी कहाँ है जिसकी हम रट लगाये बैठे हैं ?

मैं उसी भाषा का प्रयोग कविताओं में करना चाहूँगा जिसे हम-सब बोलते हैं। बोलते ही नहीं बल्कि उस भाषा के बीच जीते भी हैं। रोजमर्रें की उस चालू भाषा में परिचित मुहावरे हैं जो आमने-सामने होकर बात करते नजर आते हैं।

आज जब मन्दिर की घंटियाँ नहीं बज रहीं, मुर्गा भी बाँग नहीं दे रहा, केवल आवाजें और टेलीफून की आवाजें, पान दूकान में सटोरियों के रेकार्ड, सुबह-सुबह दूधवाली की झल्लाहट बीवी की रूखी जवान, मालिक और नौकर की रूआबी-सलामी की आवाजें, कप-वशी की खनखनाहटों के बीच दोस्तों के वार्तालाप छोकरे-छोकरियों के प्रेमालाप, नेताओं के अस्पताली आश्वासन, संसद के धुम-धड़ाक, खांव-चबाव...........और मिलों के नरियाते भोंपू की आवाजों के बीच मैं आज “चालू भाषा की कविता” लिख रहा हूँ।

मेरी ये बातें आपने सुनी। खैर अब आगे मुलाहजा फरमायें। मैं ‘बुद्धि’ नामक पक्षी को ‘ब्रेक’ के रूप में ही सदैव इस्तेमाल करता हूँ। जहाँ तक शब्दों के अर्थों का सवाल है, उसे मैं एक कदम आगे चढ़कर देखने की कोशिश करता हूँ। अनुभूति को समझदारी से ग्रहण करना ही मुझे भाता है। पता नहीं मैं इसमें कहाँ तक सफल हो पाया हूँ। मैं मानसिक तनानव के बीच ही कविता लिख पाता हूँ। लगता है कोई ऐसी चीज है जो हमें कविता लिखवाती है। शायद वह भावुकता हो। यदि आप कहेंगे भावुकता नहीं तो उसका सम्बन्ध कहीं न नहीं भावुकता से है ही। ‘भोगने ’ के बारे में मेरा कुछ अलग मत है। मात्र को भोग लेना ही पर्याप्त नहीं है । बल्कि भोगने के पहिले ‘हम क्यों भोगें, और क्या हम ईमानदारी और समझदारी से भोग रहे हैं’ प्रश्न मेरे सामने उठता है ।

जिंदगी के उन तमाम परिस्थितियों से जूझ रहा हूँ, इसी आस्था से कि कल एक नई सुबह होगी ।